रविवार, सितंबर 03, 2006

ब्‍लॉगर नेवबार को कैसे हटायें

अगर आप भी मेरे ही तरह आपने ब्‍लॉगर को और भी सुन्‍दर और आकर्षक देखना चाहते है, तो हटाइये ब्‍लॉगर नेवबार को।
क्‍या करना है : नीचे दि‍ये गये एचटीएमएल को अपने ब्‍लॉग के टेम्‍पलेट सेटिंग में जाकर पेस्‍ट कर दीजि‍ये ।

कहॉं पेस्‍ट करना है ? इसे आप head & /head के बीच में पेस्‍ट करें।
ध्‍यान रहे यह पेस्‍ट केवल प्रथम style tag से पूर्व ही पेस्‍ट होगा।

style tag से पूर्व करें तो बेहतर एवं वांछि‍त ‍परि‍णाम प्राप्‍त होगा ।

To hide the Blogger NavBar just paste the code between style tags:


<style type="text/css">
#b-navbar {   height:0px;   visibility:hidden;   display:none   }
</style>
To show the Blogger NavBar just remove the code.

शनिवार, सितंबर 02, 2006

ताजमहल की छाया में : अज्ञेय










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मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,
या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।
साधन इतनें नहीं कि पत्थर के प्रसाद खड़े कर-
तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।

पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे
या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?
हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-
औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?

हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,
देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये
व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:
क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!

मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,
पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!
जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का
प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !

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हँसो हँसो जल्दी हँसो

हँसो! तुम पर निगाह रखी जा रही है ::::::::::



हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहटपकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगेऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम होवरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहींऔर मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते होसब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकरएक अपनापे की हँसी हँसते होजैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देरतुम बोल सकते हो अपने सेगूंज थमते थमते फिर हँसनाक्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसेअन्त में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकुलों से बचोउनमें शब्द हैंकहीँ उनमें अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों
बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसोताकि किसी बात का कोई मतलब न रहेऔर ऐसे मौकों पर हँसोजो कि अनिवार्य होंजैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मारजहाँ कोई कुछ कर नहीं सकताउस गरीब के सिवाय और वह भी अकसर हँसता है


हँसो हँसो जल्दी हँसोइसके पहले कि वह चले जाएँउनसे हाथ मिलाते हुएनजरें नीची किए उसको याद दिलाते हुए हँसोकि तुम कल भी हँसे थे.

समीक्षा लेख: रोज़ इस शहर में हुक्म नया होता है !

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दीवाने सराय02: रविकान्त, संजय शर्मा,
सराय-विकासशील समाज अध्ययन पीठ तथा वाणी प्रकाशन
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द पास्ट इज ए फॉरिन कंट्री में डेविड लावेन्थल लिखते हैं 'जब हम एक बार यह जान जाते है कि पुरावशेष' इतिहास और स्मृतियां निरंतर बदलती रहती हैं तो हम अतीत की कैद से बाहर आ जाते हैं। हम किसी पवित्र मूल रूप की निरर्थक चाह में हताश नहीं होते हैं। इसलिए हमें ठीकरों को भी उतनी ही अहमियत देनी चाहिए जितनी हम अपनी विरासत की सचाई को देते हैं। अस्तित्व में आई कोई भी चीज अनछुई नहीं रहती और कोई भी ज्ञात तथ्य कभी अपरिवर्तनीय नहीं रहता। मगर इन तथ्यों से हमें दुखी नहीं होना चाहिए बल्कि मुक्ति की ओर बढ़ना चाहिए। इस बात को महसूस कर लेना बेहतर है कि हमारा अतीत सदा परिवर्तनशील रहा है बामुकाबले इसके कि हम उसे हमेशा, हर हाल में यकसां साबित करने की कोशिश करते रहे।' अतीत के बारे में यह वैज्ञानिक दृष्टि जहां एक ओर पुनरोत्थानवाद की संभावनाओं पर पर्दा डालती है वहीं उन धार्मिक कट्टपंथियों की सोच के खोखलेपन को भी उजागर करती हैं जो रामराज्य या सतयुग फिर से इस वसुंधरा पर लाने के झांसे देकर लोगों को मूर्ख बनाते हैं और अपने स्वार्थ साधते हैं। जिस तरह गया समय फिर लौट कर नहीं आता उसी तरह अतीत की पुनरावृत्ति भी कभी संभव नहीं होती। पहले हम प्रकृति की गोद में बसे गांवों में रहते थे। गांव कस्बों में बदले। कस्बे नगरों में। अब नगर महानगर और महानगर मेट्रो-कोस्मो बनने की राह पर हैं। प्रकृति और मनुष्य की तरह नगर भी बदल रहे हैं। गांवों से नगरों की ओर बढ़ी आ रही भीड़ बहुत कुछ अपने पीछे छोड़ती आ रही है लेकिन जो कुछ साथ ला रही है उसका भी बड़ा हिस्सा शहरों में अपने आपको समायोजित करने के लिए उसे त्यागना पड़ा रहा है। इस के बावजूद उसके पास कुछ ऐसा भी है जो शहरों की संस्कृति को, उनके भौतिक स्वरूप को बदल रहा है। गत सदी के आखिरी दशक की शुरूआत से इस परिवर्तन चक्र का घूमाव तेज से तेजतर होता गया है।शहर में नित्य प्रति हो रहे बदलाव की एक विशेषता यह है कि वह तेज होते हुए भी इतना सूक्ष्म होता है कि यकायक दिखाई नहीं देता। इसमें जहां सर्वत्र एकरूपता देखी जा सकती है वहीं इसकी अपनी पहचान भी धूमिल होती दिखाई नहीं देती। अर्थात् दिल्ली जिस तरह के विकास की ओर अग्रसर है उसी ओर बेंगलूर, हैदराबाद या चेन्नई भी बढ़ रहे हैं। इस पर भी वे अपनी पहचान को भी शहरी लोग देख नहीं पाते। यह अध्ययन इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पिछले कई दशक तक हम गांव के प्रति इतने मोहासक्त थे और यह कहते गर्वस्फीत होते रहते थे कि भारत माता ग्रामवासिनी है और देश की 80 प्रतिशत जनता गांवों में बसती है। हमारी संस्कृति ग्राम प्रधान है। परंतु अब उस ग्राम-मोह से मुक्ति लेकर हमें स्वीकारना होगा कि शहर हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया हैं। क्योंकि खेती से अब सकल घरेलू उत्पाद का केवल 25 प्रतिशत ही आता है जब कि 60 प्रतिशत लोग उस पर निर्भर बताये जाते हैं। गांवों की पूरी या आधी बेरोजगारी अपना पेट पालने के लिए शहरों का मुंह ताकती है। शहरी सीमाओं के लाल डोरे हम रोज आगे और आगे खिसकते जाते हैं।हाल ही में प्रकाशित हिन्दी का मौखिक इतिहास के पन्ने पलटें तो पता लगता है कि हिन्दी के तमाम अड्डों, मिलन केंद्रों के विवरण शहरों से संबद्ध हैं। यह शहरनामा शहर के नज़रिये से समाज को देखने की एक कोशिश है। इसमें शहर का वह इतिहास है जिसने समाज को वर्तमान अवस्था तक पहुंचाया है।यह इतिहास यहां के स्थापत्य, किंवदंतियों और स्मृतियों के स्म्मिश्रण से निर्मित हुआ है। बानगी के बतौर जहां दिल्ली को अहम मिला है वहीं बनारस, पटना, इलाहाबाद, कोलकाता पर भी भरपूर डाली गई है। विश्व-ग्राम की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए नाइजीरिया के कानो और चीन के बेजिंग जैसे शहरों को भी शामिल कर लिया गया है। इन शहरों में होने वाले मेलों, तीज त्यौहारों, धार्मिक अनुष्ठानों, साप्ताहिक हाट-बाज़ारों, ऐतिहासिक सरायों, सेक्स के नव्यतर प्रयोगो, गालियों की उपयोगिताओं, गुप्त रोगों की बनावटी विभीषिकाओं जैसे गोपनीय/अगोपनीय परिप्रेक्ष्यों को काफी मेहनत व ईमानदारी से जांच कर सामने रखा गया है।यों तो इस दीवान का आरंभ कोलकाता से होता है पर दिल्ली से संबोधित सामग्री की बहुतायत है। दिल्ली की एक सुव्यवस्थित शहर के रूप में तलाश गालिब की शेरो-शायरी से होती है। गालिब को भी अपने ज़माने के शहर से कुछ उसी तरह के शिकवे-शिकायतें थी जिस तरह की अक्सर आज भी लोग करते सुनाई देते हैं। उनकी अपनी औकात इस शहर में क्या है, गालिब कुछ इस तरह बयान करते हैं: 'हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या हैं। बादशाह की तारीफ ही उसे थोड़ा बहुत रुतबा बख्शती है, अगर वह न करे तो शहर उसे दो कौड़ी की इज्जत भी अता करने को तैयार नहीं होता। शहर रोज अपना रंगरूप बदलता है। गालिब हैरान हैं आखिर ऐसा क्यों होता है-'रोज इस शहर में हुक्म नया होता है। कुछ समझ में नहीं आता कि क्यो होता है। वह दिल्ली के साथ कोलकात, लखनऊ, रामपुर तथा हैदराबाद के बारे में इसी तरह के अपने विचार रखते हैं, लेकिन दिल्ली की बेमुरव्वती को वह भुला नहीं पाते: 'बादशाही का जहां ये हाल हो गालिब, तो फिर। क्यों न दिल्ली कर हर इक नाचीज नव्वाबी करें' आखिर उनकी इल्तिजा पर भी गौर कीजिये: 'दिल्ली के रहने वालो असद को सताओ मत। बेचारा चंद रोज का यां मेहमान है।]
क्रमश : बगली पोस्‍ट में
सौजन्‍य : www.rachanakar.blogspot.com