गुरुवार, फ़रवरी 21, 2008

हार की जीत


माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा”, उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।
खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?”
खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।”
“कहो, इधर कैसे आ गए?”
“सुलतान की चाह खींच लाई।”
“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।”
“मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”
“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!”
“कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।”
“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”
“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।”
बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?”
दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”
बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।”
आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”
अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”
“वहाँ तुम्हारा कौन है?”
“दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।”
बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।”
खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”
“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गसिंह ठहर गया।
बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”
“बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।”
“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”
खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?”
सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।
बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकूँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।
रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”

उदार दृष्टि



पुराने जमाने की बात है। ग्रीस देश के स्पार्टा राज्य में पिडार्टस नाम का एक नौजवान रहता था। वह पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान बन गया था।
एक बार उसे पता चला कि राज्य में तीन सौ जगहें खाली हैं। वह नौकरी की तलाश में था ही, इसलिए उसने तुरन्त अर्जी भेज दी।
लेकिन जब नतीजा निकला तो मालूम पड़ा कि पिडार्टस को नौकरी के लिए नहीं चुना गया था।
जब उसके मित्रों को इसका पता लगा तो उन्होंने सोचा कि इससे पिडार्टस बहुत दुखी हो गया होगा, इसलिए वे सब मिलकर उसे आश्वासन देने उसके घर पहुंचे।पिडार्टस ने मित्रों की बात सुनी और हंसते-हंसते कहने लगा, “मित्रों, इसमें दुखी होने की क्या बात है? मुझे तो यह जानकर आनन्द हुआ है कि अपने राज्य में मुझसे अधिक योग्यता वाले तीन सौ मनुष्य हैं।”

काबुलीवाला


रविंद्रनाथ ठाकुर की कहानी

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मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।
मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"
कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।
काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?"
मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।" फिर मैं बाहर चला गया।
कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।
काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"
रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"
इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"
रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।
हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।
एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।
इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"
रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"
छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।
काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।
कई साल बीत गए।
आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।
मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"
"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।
मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।" वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"
शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"

रविवार, सितंबर 03, 2006

ब्‍लॉगर नेवबार को कैसे हटायें

अगर आप भी मेरे ही तरह आपने ब्‍लॉगर को और भी सुन्‍दर और आकर्षक देखना चाहते है, तो हटाइये ब्‍लॉगर नेवबार को।
क्‍या करना है : नीचे दि‍ये गये एचटीएमएल को अपने ब्‍लॉग के टेम्‍पलेट सेटिंग में जाकर पेस्‍ट कर दीजि‍ये ।

कहॉं पेस्‍ट करना है ? इसे आप head & /head के बीच में पेस्‍ट करें।
ध्‍यान रहे यह पेस्‍ट केवल प्रथम style tag से पूर्व ही पेस्‍ट होगा।

style tag से पूर्व करें तो बेहतर एवं वांछि‍त ‍परि‍णाम प्राप्‍त होगा ।

To hide the Blogger NavBar just paste the code between style tags:


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#b-navbar {   height:0px;   visibility:hidden;   display:none   }
</style>
To show the Blogger NavBar just remove the code.

शनिवार, सितंबर 02, 2006

ताजमहल की छाया में : अज्ञेय










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मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,
या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।
साधन इतनें नहीं कि पत्थर के प्रसाद खड़े कर-
तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।

पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे
या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?
हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-
औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?

हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,
देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये
व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:
क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!

मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,
पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!
जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का
प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !

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हँसो हँसो जल्दी हँसो

हँसो! तुम पर निगाह रखी जा रही है ::::::::::



हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहटपकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगेऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम होवरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहींऔर मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते होसब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकरएक अपनापे की हँसी हँसते होजैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देरतुम बोल सकते हो अपने सेगूंज थमते थमते फिर हँसनाक्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसेअन्त में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकुलों से बचोउनमें शब्द हैंकहीँ उनमें अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों
बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसोताकि किसी बात का कोई मतलब न रहेऔर ऐसे मौकों पर हँसोजो कि अनिवार्य होंजैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मारजहाँ कोई कुछ कर नहीं सकताउस गरीब के सिवाय और वह भी अकसर हँसता है


हँसो हँसो जल्दी हँसोइसके पहले कि वह चले जाएँउनसे हाथ मिलाते हुएनजरें नीची किए उसको याद दिलाते हुए हँसोकि तुम कल भी हँसे थे.

समीक्षा लेख: रोज़ इस शहर में हुक्म नया होता है !

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दीवाने सराय02: रविकान्त, संजय शर्मा,
सराय-विकासशील समाज अध्ययन पीठ तथा वाणी प्रकाशन
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द पास्ट इज ए फॉरिन कंट्री में डेविड लावेन्थल लिखते हैं 'जब हम एक बार यह जान जाते है कि पुरावशेष' इतिहास और स्मृतियां निरंतर बदलती रहती हैं तो हम अतीत की कैद से बाहर आ जाते हैं। हम किसी पवित्र मूल रूप की निरर्थक चाह में हताश नहीं होते हैं। इसलिए हमें ठीकरों को भी उतनी ही अहमियत देनी चाहिए जितनी हम अपनी विरासत की सचाई को देते हैं। अस्तित्व में आई कोई भी चीज अनछुई नहीं रहती और कोई भी ज्ञात तथ्य कभी अपरिवर्तनीय नहीं रहता। मगर इन तथ्यों से हमें दुखी नहीं होना चाहिए बल्कि मुक्ति की ओर बढ़ना चाहिए। इस बात को महसूस कर लेना बेहतर है कि हमारा अतीत सदा परिवर्तनशील रहा है बामुकाबले इसके कि हम उसे हमेशा, हर हाल में यकसां साबित करने की कोशिश करते रहे।' अतीत के बारे में यह वैज्ञानिक दृष्टि जहां एक ओर पुनरोत्थानवाद की संभावनाओं पर पर्दा डालती है वहीं उन धार्मिक कट्टपंथियों की सोच के खोखलेपन को भी उजागर करती हैं जो रामराज्य या सतयुग फिर से इस वसुंधरा पर लाने के झांसे देकर लोगों को मूर्ख बनाते हैं और अपने स्वार्थ साधते हैं। जिस तरह गया समय फिर लौट कर नहीं आता उसी तरह अतीत की पुनरावृत्ति भी कभी संभव नहीं होती। पहले हम प्रकृति की गोद में बसे गांवों में रहते थे। गांव कस्बों में बदले। कस्बे नगरों में। अब नगर महानगर और महानगर मेट्रो-कोस्मो बनने की राह पर हैं। प्रकृति और मनुष्य की तरह नगर भी बदल रहे हैं। गांवों से नगरों की ओर बढ़ी आ रही भीड़ बहुत कुछ अपने पीछे छोड़ती आ रही है लेकिन जो कुछ साथ ला रही है उसका भी बड़ा हिस्सा शहरों में अपने आपको समायोजित करने के लिए उसे त्यागना पड़ा रहा है। इस के बावजूद उसके पास कुछ ऐसा भी है जो शहरों की संस्कृति को, उनके भौतिक स्वरूप को बदल रहा है। गत सदी के आखिरी दशक की शुरूआत से इस परिवर्तन चक्र का घूमाव तेज से तेजतर होता गया है।शहर में नित्य प्रति हो रहे बदलाव की एक विशेषता यह है कि वह तेज होते हुए भी इतना सूक्ष्म होता है कि यकायक दिखाई नहीं देता। इसमें जहां सर्वत्र एकरूपता देखी जा सकती है वहीं इसकी अपनी पहचान भी धूमिल होती दिखाई नहीं देती। अर्थात् दिल्ली जिस तरह के विकास की ओर अग्रसर है उसी ओर बेंगलूर, हैदराबाद या चेन्नई भी बढ़ रहे हैं। इस पर भी वे अपनी पहचान को भी शहरी लोग देख नहीं पाते। यह अध्ययन इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पिछले कई दशक तक हम गांव के प्रति इतने मोहासक्त थे और यह कहते गर्वस्फीत होते रहते थे कि भारत माता ग्रामवासिनी है और देश की 80 प्रतिशत जनता गांवों में बसती है। हमारी संस्कृति ग्राम प्रधान है। परंतु अब उस ग्राम-मोह से मुक्ति लेकर हमें स्वीकारना होगा कि शहर हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया हैं। क्योंकि खेती से अब सकल घरेलू उत्पाद का केवल 25 प्रतिशत ही आता है जब कि 60 प्रतिशत लोग उस पर निर्भर बताये जाते हैं। गांवों की पूरी या आधी बेरोजगारी अपना पेट पालने के लिए शहरों का मुंह ताकती है। शहरी सीमाओं के लाल डोरे हम रोज आगे और आगे खिसकते जाते हैं।हाल ही में प्रकाशित हिन्दी का मौखिक इतिहास के पन्ने पलटें तो पता लगता है कि हिन्दी के तमाम अड्डों, मिलन केंद्रों के विवरण शहरों से संबद्ध हैं। यह शहरनामा शहर के नज़रिये से समाज को देखने की एक कोशिश है। इसमें शहर का वह इतिहास है जिसने समाज को वर्तमान अवस्था तक पहुंचाया है।यह इतिहास यहां के स्थापत्य, किंवदंतियों और स्मृतियों के स्म्मिश्रण से निर्मित हुआ है। बानगी के बतौर जहां दिल्ली को अहम मिला है वहीं बनारस, पटना, इलाहाबाद, कोलकाता पर भी भरपूर डाली गई है। विश्व-ग्राम की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए नाइजीरिया के कानो और चीन के बेजिंग जैसे शहरों को भी शामिल कर लिया गया है। इन शहरों में होने वाले मेलों, तीज त्यौहारों, धार्मिक अनुष्ठानों, साप्ताहिक हाट-बाज़ारों, ऐतिहासिक सरायों, सेक्स के नव्यतर प्रयोगो, गालियों की उपयोगिताओं, गुप्त रोगों की बनावटी विभीषिकाओं जैसे गोपनीय/अगोपनीय परिप्रेक्ष्यों को काफी मेहनत व ईमानदारी से जांच कर सामने रखा गया है।यों तो इस दीवान का आरंभ कोलकाता से होता है पर दिल्ली से संबोधित सामग्री की बहुतायत है। दिल्ली की एक सुव्यवस्थित शहर के रूप में तलाश गालिब की शेरो-शायरी से होती है। गालिब को भी अपने ज़माने के शहर से कुछ उसी तरह के शिकवे-शिकायतें थी जिस तरह की अक्सर आज भी लोग करते सुनाई देते हैं। उनकी अपनी औकात इस शहर में क्या है, गालिब कुछ इस तरह बयान करते हैं: 'हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या हैं। बादशाह की तारीफ ही उसे थोड़ा बहुत रुतबा बख्शती है, अगर वह न करे तो शहर उसे दो कौड़ी की इज्जत भी अता करने को तैयार नहीं होता। शहर रोज अपना रंगरूप बदलता है। गालिब हैरान हैं आखिर ऐसा क्यों होता है-'रोज इस शहर में हुक्म नया होता है। कुछ समझ में नहीं आता कि क्यो होता है। वह दिल्ली के साथ कोलकात, लखनऊ, रामपुर तथा हैदराबाद के बारे में इसी तरह के अपने विचार रखते हैं, लेकिन दिल्ली की बेमुरव्वती को वह भुला नहीं पाते: 'बादशाही का जहां ये हाल हो गालिब, तो फिर। क्यों न दिल्ली कर हर इक नाचीज नव्वाबी करें' आखिर उनकी इल्तिजा पर भी गौर कीजिये: 'दिल्ली के रहने वालो असद को सताओ मत। बेचारा चंद रोज का यां मेहमान है।]
क्रमश : बगली पोस्‍ट में
सौजन्‍य : www.rachanakar.blogspot.com

मंगलवार, अगस्त 29, 2006

लॉटरी ने बदली क़िस्मत

दूसरों का घर बनाने वाले मिस्त्री के घर का छप्पर फट गया.

चौंकिए नहीं एक बार फिर लक्ष्मी ने लॉटरी का मार्ग अपनाया है और इस बार पहुँच गईं केरल के एक मिस्त्री के घर.

दिहाड़ी मजदूर मंगद बंसराज को पाँच करोड़ 20 लाख रूपए का जैकपॉट लगा है और लॉटरी कंपनी उन्हे भारत दर्शन पर भी ले जाने वाली है.

अनपढ़ बंसराज अब चाहते हैं कि वे इन पैसों से या तो वे स्कूल बनवाएँ या फिर ग़रीबों के लिए अस्पताल.

बंसराज को सिक्किम सुपर ड्रॉ लॉटरी जीतने की ख़बर एक स्थानीय अख़बार से मिली जिसमें लिखा था कि लॉटरी कंपनी विजेता को ढूँढने का प्रयास कर रही है.

बँगलौर में पत्रकारों से बातचीत करते हुए बंसराज ने कहा वे हमेशा लॉटरी टिकट ख़रीदना चाहते थे लेकिन उनके गाँव में, जिसका भी नाम मंगद है, टिकट ख़रीदना मुश्किल है.

उन्होंने कहा "मैं हमेशा टिकट ख़रीदने दोस्तों को भेजा करता था लेकिन इस बार स्वंय ख़रीदा".

उन्होंने दस-दस रूपये के दो टिकट ख़रीदे थे.

जब बंसराज को पता चला कि उनकी लॉटरी लग गई है तो उनकी सबसे बड़ी चिंता थी एक बैंक खाता खोलने की.

उन्होंने कहा "जीवन में कभी किसी बैंक में कोई खाता नहीं खोला था. लेकिन मुझे ज़्यादा देर चिंता नहीं करनी पड़ी और ख़बर मिलते ही बहुत सारे बैंकवाले ही मेरे पास पहुँच गए".

बंसराज कहते हैं कि "मुझे अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है कि मुझे इतना सारा पैसा मिलेगा".

लेकिन अभी इन पैसों से वो गाड़ी ख़रीदने की नहीं सोच रहे हैं, उन्हे साइकिल चलाना भी नहीं आता है.

हालाँकि लॉटरी लगने की ख़बर सुनने के बाद उन्होंने अपनी चार साल की बेटी के लिए स्कूल बैग ज़रूर ख़रीद दिया.

इतना सारा पैसा जीतने के बावजूद बंसराज का कहना है कि वे अपना काम नहीं छोड़ेंगे.

उन्होंने कहा "मैं जीवन में केवल यही काम जानता हूँ. मैं दूसरों के लिए घर बनाता रहूँगा".

गाओ हि‍न्‍दी का राग : वन्‍दे मातरम्

वन्‍दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्य श्यामलां मातरम् ।
शुभ्र ज्योत्स्न पुलकित यामिनीम
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् ।
सुखदां वरदां मातरम् ॥ वन्दे मातरम्…
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सप्त कोटि कन्ठ कलकल निनाद कराले
निसप्त कोटि भुजैब्रुत खरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीं नमामि तारिणीम्
रि‍पुदलवारिणीं मातरम् ॥ वन्दे मातरम्…
तुमि विद्या तुमि धर्मं, तुमि ह्रदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
ह्रदये तुमि मा भक्ति,
तोमारे प्रतिमा गडि मंदिरे मंदिरे ॥ वन्दे मातरम्…
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दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणीवाणी
विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम् ॥ वन्दे मातरम्…
श्यामलां सरलां सुस्मितां भुषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम् ॥ वन्दे मातरम्
-- बंकि‍म चन्‍द्र चटर्जी